नेहरू का पूरा इतिहास जो आज तक आने नही पढा होगा।पीढियां वंश गोत्र और मूलनिवास।

कश्मीर का एक कौल परिवार, जिसे मुगल बादशाह ने दिल्ली बुला लिया
ये 18वीं सदी के शुरुआती सालों की बात है. हिंदुस्तान पर मुगलों की हुकूमत थी. जैसे आज दिल्ली देश का केंद्र है, वैसे ही उस समय भी दिल्ली का दरबार मुल्क का सेंटर हुआ करता था. जब की हम बात कर रहे हैं, तब गद्दी पर राज था बादशाह फर्रुखसियर का. वही बादशाह, जिसने 1717 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को मुगल साम्राज्य के अंदर रहने और व्यापार करने की इजाजत दी थी. फर्रुखसियर 1713 से 1719 तक बादशाह रहा. उन दिनों कश्मीर में एक कौल परिवार हुआ करता था. इसके मुखिया थे राज नारायण कौल. 1710 में उन्होंने कश्मीर के इतिहास पर एक किताब लिखी- तारिख़ी कश्मीर. इस किताब की बड़ी तारीफ हुई. ये वाहवाही मुगल बादशाह तक पहुंची. ये सन् 1716 की बात है. तब राजा लोग पढ़े-लिखे लोगों को अपने दरबार में जगह देते थे. तो बादशाह भी राज नारायण के काम से बड़े प्रभावित हुए थे. इसलिए उन्होंने राज नारायण कौल को दिल्ली आने और यहीं बस जाने का न्योता दिया.
👇👇👇👇👇👇👇👇👇
ये 1894 की तस्वीर है. दाहिनी तरफ कुर्सी पर बैठे हैं जवाहरलाल. बगल में उनकी मां स्वरूप रानी बैठी हैं. बीच में खड़े हैं पिता मोतीलाल नेहरू (फोटो: नेहरू मेमोरियल म्यूजियम ऐंड लाइब्रेरी)

बादशाह मारा गया, पर उसकी दी हवेली सलामत रही
राजा का न्योता ठहरा, टालने की हिम्मत कौन करेगा? तो राज नारायण कश्मीर छोड़कर दिल्ली आ गए. फर्रुखसियर ने उन्हें थोड़ी जागीर और चांदनी चौक में एक हवेली दे दी. इसके तकरीबन दो साल बाद ही फर्रुखसियर मारा गया. जिस बादशाह ने राज नारायण को दिल्ली बुलाया, वो खुद कत्ल हो गया. बादशाह भले चला गया हो, मगर राज नारायण को मिली हवेली सलामत रही.

चांदनी चौक की वो हवेली, जिसमें छुपा है ‘नेहरू’ नाम का रहस्य
इस हवेली का किस्सा बड़ा दिलचस्प है. क्योंकि इसी हवेली से जुड़ा है कौल परिवार के नेहरू परिवार में बदल जाने का रहस्य. हुआ यूं कि इस हवेली के पास एक नहर बहती थी. आपने शायद देखा-सुना हो. गांवों में लोग कहते हैं. किसी के घर के पास नीम का बड़ा पेड़ हो, तो लोग उस घर को नीम वाला घर बोलने लग जाते हैं. चांदनी चौक में राज नारायण कौल जहां रहते थे, उस इलाके में और भी कई कश्मीरी रहते थे. नहर के किनारे हवेली होने के कारण वो लोग राज नारायण कौल के परिवार को ‘कौल नेहरू’ कहकर पुकारने लगे. नहर के कनेक्शन की वजह से नेहरू नाम आया.
👇👇👇👇👇👇👇👇👇
ये उस समय की तस्वीर है, जब जवाहरलाल कैम्ब्रिज में पढ़ाई कर रहे थे. मोतीलाल नेहरू उनसे मिलने वहां पहुंचे. जवाहरलाल ने जिस बच्ची को पकड़ा हुआ है, वो उनकी छोटी बहन विजयालक्ष्मी पंडित हैं (फोटो: नेहरू मेमोरियल म्यूजियम ऐंड लाइब्रेरी)

‘नेहरू’ नाम की एक और कहानी चलती है
हालांकि ये बादशाह फर्रुखसियर के दिल्ली बुलाने और नहर के पास रहने के कारण नेहरू कहलाने की थिअरी पर कुछ आपत्तियां भी हैं. इतिहास में अमूमन ऐसा होता है. किसी बात पर इतिहासकारों में अलग-अलग राय होना आम बात है. मसलन सिंधु घाटी सभ्यता कैसे खत्म हुई, इसे लेकर कितनी ही थिअरीज़ हैं. इस मामले को विस्तार से जानने के लिए हमने अशोक कुमार पाण्डेय से बात. अशोक लेखक और इतिहासकार हैं. हाल ही में ‘कश्मीरनामा’ नाम की उनकी एक किताब आई थी. इसकी काफी तारीफ भी हुई. अशोक ने जो बताया, वो उनके ही शब्दों में हम आपको ज्यों-का-त्यों बता रहे हैं-

नेहरू परिवार के पारिवारिक नाम ‘कौल’ से ‘नेहरू’ में बदलने को लेकर बी आर नन्दा सहित जवाहरलाल नेहरू के अधिकतर जीवनीकारों ने वही दिल्ली में नहर के किनारे बसने की बात लिखी है. खुद नेहरू ने अपनी आत्मकथा में ‘नेहरू’ सरनेम के पीछे यही कारण गिनाया है. लेकिन जम्मू और कश्मीर के जाने-माने इतिहासकार , शेख़ अब्दुल्ला की जीवनी ‘आतिश-ए-चिनार’ के संपादक और जम्मू-कश्मीर की कला, संस्कृति एवं भाषा अकादमी के पूर्व सचिव मोहम्मद यूसुफ़ टैंग इस थियरी से सहमत नहीं हैं.

उनकी पहली आपत्ति तो यह है कि मुग़ल बादशाह फर्रुखसियर कभी कश्मीर गया ही नहीं. इसलिए नेहरू का यह दावा कि राज कौल पर बादशाह की नज़र पड़ी और उनके आमंत्रण पर राज कौल दिल्ली आए, सही नहीं लगता. यूसुफ़ टैंग का यह भी कहना है कि राज कौल का ज़िक़्र उस दौर के कश्मीरी इतिहासकारों के यहां नहीं मिलता. वो बहुत प्रतिष्ठित विद्वान हों, इसकी संभावना नहीं लगती.

उनका मानना है कि नेहरू उपनाम कश्मीर की ही पैदाइश है. जहां उत्तर भारत में दीर्घ ई से उपनाम बनते हैं (सुल्तानपुरी, लायलपुरी, नोमानी, देहलवी), वहीं कश्मीर में ऊ से (सप्रू, काठ से काटजू, कुंज़र से कुंज़रू) वगैरह बनते हैं. कश्मीर में चूंकि नहर के लिए कुल या नद इस्तेमाल होता है, तो नेहरू उपनाम का नहर से कोई रिश्ता नहीं मालूम पड़ता. टैंग का मानना है कि या तो नेहरू परिवार श्रीनगर एयरपोर्ट के पास के नौर या फिर त्राल के पास के नुहर गांव का रहने वाला था. और शायद इसकी ही वजह से ‘नेहरू’ उनका उपनाम बन गया.

हालांकि संभव तो यह भी है कि दिल्ली की नहर से ही कश्मीरी परंपरा में नेहरू नाम आया हो. दिल्ली के जानकार और इतिहास के विद्वान सोहैल हाशमी ने निजी बातचीत में मुझे बताया कि उस दौर में ढेरों कश्मीरी पंडित परिवार वहां (चांदनी चौर के उस इलाके में, जहां राज कौल सपरिवार रहने आए थे) रहते थे. शायद उन्हीं में से एक ने इस परिवार को नेहरू नाम से पुकारना शुरू किया हो. ये परिवार पहले खुद को ‘कौल नेहरू’ लिखा करता था. मोतीलाल नेहरू ने अपने नाम से ‘कौल’ हटा दिया और वो बस ‘नेहरू’ सरनेम ही रखने लगे. उनके बेटे जवाहरलाल ने भी पिता की ही तरह अपने नाम में बस नेहरू ही लगाया. उसी दौर से यह परिवार नेहरू उपनाम से जाना जाने लगा.👇👇👇👇👇👇👇👇
👉👉👉👉👉दिल्ली पुलिस की वेबसाइट पर एक सेक्शन है- हिस्ट्री. इसमें दिल्ली पुलिस का अतीत बताया गया है. यहां आपको गंगाधर नेहरू का भी जिक्र मिलेगा.

किस्मत कहां से चमकी?
बी आर नंदा की एक किताब है- द नेहरूज़, मोतीलाल ऐंड जवाहरलाल. नंदा बताते हैं कि जैसे-जैसे मुगलों की बादशाहत फीकी पड़ रही थी, वैसे-वैसे राज कौल को मिली जागीर भी घटती गई. फिर ये बस कुछ जमीन के टुकड़ों के जमींदारी अधिकार पर सिमट गई. इन अधिकारों का फायदा पाने वाले आखिरी शख्स थे मौसा राम कौल और साहेब राम कौल. ये दोनों राज नारायण कौल के पोते थे. इन्हीं मौसा राम के बेटे थे लक्ष्मी नारायण कौल नेहरू. लक्ष्मी नारायण को बड़ा पद मिला. ईस्ट इंडिया कंपनी ने मुगल दरबार में उन्हें अपना वकील बनाया. वो ईस्ट इंडिया कंपनी के पहले वकील थे यहां. इसके बाद से कौल नेहरू परिवार ने काफी तरक्की की. लक्ष्मी नारायण के बेटे थे गंगाधर नेहरू. 1857 के गदर के समय वो दिल्ली के कोतवाल थे. इस समय तक कौल नेहरू परिवार को दिल्ली में बसे लगभग डेढ़ सदी का वक्त बीत गया था. गंगाधर नेहरू और उनकी कोतवाली के बारे में एक दिलचस्प जानकारी हमें दिल्ली पुलिस की वेबसाइट पर मिली. वहां लिखा है-

1857 का गदर कुचलने के बाद अंग्रेजों ने कोतवाल का पद खत्म कर दिया. दिलचस्प बात ये है कि 1857 में भारत की आजादी का पहला संग्राम शुरू होने से ठीक पहले गंगाधर नेहरू को दिल्ली का कोतवाल नियुक्त किया गया था. चूंकि उनके बाद ये पद ही खत्म कर दिया गया, इसलिए वो दिल्ली के आखिरी कोतवाल थे. गंगाधर नेहरू पंडित मोतीलाल नेहरू के पिता और पंडित जवाहरलाल नेहरू के दादा थे.
👇👇👇👇👇👇👇
1857 के गदर के वक्त दिल्ली में बहुत मार-काट हुई. बहुत बर्बादी हुई. हजारों लोगों को जान बचाकर भागना पड़ा. भागने वालों में गंगाधर नेहरू का परिवार भी था. ये लोग भागकर आगरा चले गए. गंगाधर और उनकी पत्नी इंद्राणी के परिवार को पांच बच्चे हुए. दो बेटियां- पटरानी और महारानी. और तीन बेटे- बंसीधर, नंदलाल और मोतीलाल
✔️✔️✔️✔️✔️📛📛🔰
ये है नेहरू परिवार की फैमिली फोटो. बैठे हुए लोगों में सबसे बाईं तरफ हैं स्वरूप रानी, फिर मोतीलाल नेहरू, फिर कमला नेहरू. मां के पीछे खड़े हैं जवाहरलाल. उनके बगल में हैं विजया लक्ष्मी पंडित, कृष्णा कुमारी, इंदिरा और विजयालक्ष्मी के पति रंजीत सीताराम पंडित (फोटो: नेहरू मेमोरियल म्यूजियम ऐंड लाइब्रेरी)
🔄🔄🔄🔄🔄🔄🔄🔄🔄🔄🔄
पिता गुजर गए, तो बड़े भाई ने की मोतीलाल की परवरिश
गंगाधर और इंद्राणी की सबसे छोटी औलाद थे मोतीलाल नेहरू. मोतीलाल को पैदा होने में तीन महीने बचे थे, जब उनके पिता गंगाधर की मौत हो गई. ये साल था 1861. पिता की मौत के बाद परिवार को संभाला बड़े बेटे बंसीधर ने. वो आगरा की सदर दीवानी अदालत में जज के सुनाये फैसलों को लिखने का काम करते थे. आगे चलकर वो खुद सबऑर्डिनेट जज बने.
↙️↙️↙️↙️↙️↙️↙️↙️↙️↙️
बंसीधर से छोटे भाई, यानी नंदलाल पहले स्कूल मास्टरी करते थे. उन दिनों आगरा के पास एक छोटी सी रियासत थी- खेत्री. यहां के राजा थे फतेह सिंह. नंदलाल को मौका मिला और वो राजा फतेह सिंह के प्राइवेट सेक्रटरी बन गए. आगे चलकर राजा ने उन्हें अपना दीवान बना दिया. नंदलाल राजा के वफादार थे. राजा का कोई बेटा नहीं था. वो एक नौ साल के बच्चे अजीत सिंह को गोद लेना चाहते थे. उनकी ख्वाहिश थी कि वही बच्चा उनके बाद उनकी गद्दी पर बैठे. राजा की मौत के बाद नंदलाल और कुछ और वफादारों ने बड़ी चालाकी से राजा की आखिरी इच्छा पूरी करने की कोशिश की. इस चक्कर में नंदलाल की नौकरी चली गई.
🔑🔑🔑🔑🔑🔑🔑
…फिर ये वकीलों का खानदान बन गया
नौकरी चली जाने के बाद नंदलाल खेत्री से निकले और उन्होंने वकालत की पढ़ाई की. दादा लक्ष्मी नारायण कौल नेहरू के बाद अब उनके दोनों पोते- बंसीधर और नंदलाल वकील बन चुके थे. नंदलाल भी आगरा कोर्ट में वकालत करने लगे. बचे मोतीलाल. दोनों बड़े भाइयों ने उन्हें पढ़ाने-लिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. चूंकि मोतीलाल छुटपन में मंझले भाई नंदलाल के साथ रहते थे, तो कुछ दिन उनकी पढ़ाई खेत्री में हुई. कॉलेज की पढ़ाई के लिए इलाहाबाद के मुनीर सेंट्रल कॉलेज में दाखिला करवाया गया. कॉलेज के बाद मोतीलाल ने भी वकालत की पढ़ाई करने का फैसला किया. इसके लिए उनको कैम्ब्रिज भेजा गया. 1883 में मोतीलाल कानून की डिग्री लेकर भारत लौट आए. मंझले भाई नंदलाल के साथ मिलकर वो बतौर वकील प्रैक्टिस करने लगे.
👇👇👇👇👇👇👇🎮🎮
ये है जवाहरलाल नेहरू और कमला नेहरू की तस्वीर. 1916 की फोटो है ये. जवाहरलाल ने दूल्हे के कपड़े पहने हैं. कमला नेहरू दुल्हन के जोड़े में हैं. ये उनकी शादी के दिन की ही फोटो है. जहां शादी हुई, उसके ठीक बाहर ली गई थी ये तस्वीर (फोटो: नेहरू मेमोरियल म्यूजियम ऐंड लाइब्रेरी)
🌹🌷🙏👇👇👇👇👇👇
…और फिर पैदा हुए जवाहरलाल
मोतीलाल की दो शादियां हुई थीं. पहली शादी नाबालिग रहते हुए ही हो गई थी. मगर उनकी पत्नी बच्चे को जन्म देते समय गुजर गईं. फिर 25 बरस की उम्र में मोतीलाल ने दूसरी शादी की. पत्नी का नाम था स्वरूप रानी. शादी के वक्त स्वरूप की उम्र थी 14 साल. इन्हीं मोतीलाल और स्वरूप रानी की गृहस्थी में 14 नवंबर, 1889 को एक नए मेंबर की एंट्री हुई. दोनों के एक बेटा हुआ, जिसका नाम रखा गया- जवाहरलाल.👇👇👇👇👇👇👇👇👇👇👇👇👇👇👇
इलाहाबाद में आकर क्यों बसा परिवार?
मोतीलाल कानपुर के डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में वकालत करते थे. काम भी अच्छा चल रहा था. मगर मोतीलाल और तरक्की करना चाहते थे. इसीलिए वो चले आए इलाहाबाद. यहां पर हाई कोर्ट थी. हाई कोर्ट माने ज्यादा मौके. बेहतर प्रैक्टिस. मंझले भाई नंदलाल पहले ही इलाहाबाद में वकालत कर रहे थे.
👇👇👇👇👇👇
इलाहाबाद में मौकों की कमी नहीं थी. मोतीलाल की बैरिस्टरी चमक गई. बहुत तेजी से तरक्की की उन्होंने. मोतीलाल दीवानी वकील थे. जमींदारों और तालुकेदारों के भी खूब केस लड़ते थे. मोटा पैसा मिलता था. शुरुआत में वो इलाहाबाद में 9, ऐल्गिन रोड पर रहे. फिर सन् 1900 में उन्होंने 1 चर्च रोड पर एक घर खरीदा. घर क्या था, महल ही था. मोतीलाल और स्वरूप रानी ने अपने इस घर का नाम रखा- आनंद भवन. फिर आगे चलकर इस घर के पास एक और घर बनाया गया. पुराने वाले ‘आनंद भवन’ को ‘स्वराज भवन’ का नाम दे दिया गया. नया घर ‘आनंद भवन’ कहलाने लगा. मोतीलाल ने अपना वो ‘स्वराज भवन’ देश के नाम कर दिया. एक और बात बता दें. इस परिवार में मोतीलाल नेहरू से पहले तक के लोग अपने नाम के साथ ‘कौल नेहरू’ लगाते थे. मोतीलाल ने ‘कौल’ हटाकर बस नेहरू लिखना शुरू किया. उनकी शुरू की हुई ये रवायत उनके बेटे जवाहरलाल ने भी जारी रखी. और इस तरह हमें-आपको आमतौर पर बस नेहरू ही मालूम रह गया. कौल वाली बात इतिहास की किताबों में छूट गई.👇👇

ये है नेहरू परिवार की वंशावली. इसमें गंगाधर नेहरू से आने वाली पुश्तों के नाम हैं  (फोटो: नेहरू मेमोरियल म्यूजियम ऐंड लाइब्रेरी)
👇👇
अगली बार गयासुद्दीन गाज़ी की बकवास सुनना, तो…
जवाहरलाल नेहरू और उनकी पत्नी कमला नेहरू की बेटी इंदिरा और उनसे आगे बढ़े उनके अब तक के खानदान को तो आप जानते ही हैं. उनके बारे में क्या बताना? कौन किस धर्म का है, इस बात पर इतने शब्द खर्च कतई नहीं खर्च करने चाहिए थे. क्योंकि कोई किसी भी धर्म या जाति से हो, क्या फर्क पड़ता है. समीक्षा उसके काम की होनी चाहिए. मगर देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के खिलाफ कई तरह का दुष्प्रचार किया जाता है. इन्हीं में से एक दुष्प्रचार ‘गयासुद्दीन गाजी’ वाली बात भी है. नेहरू खानदान मुस्लिम नहीं था, बावजूद इसके उन्हें मुस्लिम साबित करने की कोशिश होती है. इसके पीछे साजिश ये है कि उन्हें हिंदू विरोधी साबित किया जाए. जब धर्म के बहाने किसी फ्रीडम फाइटर की साख गिराने, उसका चरित्रहनन करने और उसे डिस्क्रेडिट करने के लिए दुष्प्रचार गढ़ा जाएगा, तब स्टैंड तो लेना ही चाहिए. हमने लिया. आप भी लीजिए. फेक और हेट न्यूज के शिकार मत होइए. प्रोपोगेंडा नहीं, फैक्ट्स पढ़िए. आप नेहरू की प्रशंसा करते हैं या आलोचना, ये आपका फैसला है. मगर जो भी कीजिए, तथ्यों के आधार पर कीजिए.
👉👉👉👉👉👉👉
नोट: इस स्टोरी को करने में कई किताबें काम आईं. थोड़ा-बहुत अंतर हो तो हो, वर्ना ज्यादातर जगहों पर एक सी कहानी मिली. कहीं पर बहुत विस्तार से, कहीं संक्षिप्त. नेहरू मेमोरियल म्यूजियम ऐंड लाइब्रेरी के रेकॉर्ड्स से भी बहुत मदद मिली. उनके पास ढेरों ऐतिहासिक और दुर्लभ तस्वीरों का बेशकीमती खजाना है. इनमें से कई तस्वीरों का इस्तेमाल हमने अपने इस आर्टिकल में किया है. ये भारत सरकार की संस्था है. इसमें दिए गए डॉक्यूमेंट्स पर भरोसा करने में आपको कोई परहेज़ नहीं होना चाहिए. 

1 comment:

The kashmir file movie download link. download the kashmir file movie. HD, Full hd.

 watch and download. the kashmir file direct. download the kashmir file. for any problem in downloading msg me and follow me on insta i will...

Popular