मंगल पांडे ने नहीं तिलका मांझी ने किया था अंग्रेज़ों के खिलाफ पहला विद्रोह।

मंगल पांडे ने नहीं तिलका मांझी ने किया था अंग्रेज़ों के खिलाफ पहला विद्रोह।


चीखती घटनाएं तो इतिहास में बड़ी सहजता से जगह पा लेती हैं, मगर ख़ामोश घटनाएं उतनी ही आसानी से नजरअंदाज़ भी कर दी जाती हैं, लेकिन कभी-कभी ख़ामोश घटनाएं ज़्यादा वज़नदार साबित होती हैं। भारत के इतिहास में कई क्रांतियां हुई हैं, लेकिन इतिहासकारों द्वारा इतिहास को या तो दबाया गया या तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया।
भारत में अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ कई भारतीयों ने आवाज़ उठाई थी, कई युद्ध हुए और कई लोगों की जानें गई। सन 1857 में तत्कालीन भारतीय गवर्नर लॉर्ड डलहौजी के ‘डाक्ट्रिन ऑफ़ लैप्स’ नियम के तहत सतारा, झांसी, नागपुर और अवध को कंपनी में जोड़ देने की वजह से अन्य देसी प्रांतो ने विद्रोह कर दिया। उसी समय ‘मंगल पांडे’ नाम के ब्रिटिश सैनिक ने ब्राह्मण होने की वजह से ‘एनफील्ड रायफल’ की गाय औेर सूअर की चर्बी से बने कारतूस का विरोध किया और ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ के खिलाफ बगावत कर दी।
इस तरह 1857 में कंपनी शासन के खिलाफ लड़ाई की शुरुआत हुई, जिसे भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहा गया। मंगल पांडे का कोर्ट मार्शल करके 8 अप्रैल 1857 को उन्हें फांसी दे दी गई और इतिहासकारों ने उन्हें भारत के स्वतंत्रता संग्राम का प्रथम शहीद घोषित कर दिया। आज भी किताबों, स्कूलों, फिल्मों और नाटकों आदि में मंगल पांडे को प्रथम शहीद बताया जाता है। जबकि अंग्रेज़ों के खिलाफ जंग की शुरुआत बाबा तिलका मांझी के नेतृत्व में मंगल पांडे के जन्म से 90 वर्ष पूर्व सन 1770 में ही शुरू हो चुकी थी।
1750 में तिलकपुर गावं में जन्मे बाबा तिलका मांझी को, भारतीय इतिहासकारों की जातिवादी मानसिकता के कारण इतिहास में कहीं जगह नहीं मिली। तिलका मांझी ने गाय की चर्बी या किसी धार्मिक भावना को ठेस लगने के कारण अंग्रेज़ों के खिलाफ जंग की शुरुआत नहीं की थी। उन्होंने अन्याय और गुलामी के खिलाफ जंग छेड़ी थी। तिलका मांझी राष्ट्रीय भावना जगाने के लिए भागलपुर में स्थानीय लोगों को सभाओं में संबोधित करते थे। जाति और धर्म से ऊपर उठकर लोगों को राष्ट्र के लिए एकत्रित होने का आह्वान करते थे।
तिलका मांझी ने राजमहल की पहाड़ियों में अंग्रेज़ों के खिलाफ कई लड़ाईयां लड़ी। सन 1770 में पड़े अकाल के दौरान तिलका मांझी के नेतृत्व में संतालों ने सरकारी खजाने को लूट कर गरीबो में बांट दिया जिससे गरीब तबके के लोग तिलका मांझी से प्रभावित हुए और उनके साथ जुड़ गए। इसके बाद तिलका मांझी ने अंग्रेज़ों और सामंतो पर हमले तेज़ कर दिए। हर जगह तिलका मांझी की जीत हुई। सन 1784 में तिलका मांझी ने भागलपुर पर हमला किया और 13 जनवरी 1784 में ताड़ के पेड़ पर चढ़कर घोड़े पर सवार अंग्रेज़ कलेक्टर ‘अगस्टस क्लीवलैंड’ को अपने विष-बुझे तीर का निशाना बनाया और मार गिराया।
अंग्रेज कलेक्टर की मौत से ब्रिटिश सेना में आतंक मच गया। तिलका मांझी और उनके साथियों के लिए यह एक बड़ी कामयाबी थी। जब तिलका मांझी और उनके साथी इस जीत का जश्न मना रहे थे तब रात के अंधेरे में अंग्रेज सेनापति आयरकूट ने हमला बोला लेकिन किसी तरह तिलका मांझी बच निकले और उन्होंने राजमहल की पहाड़ियों में शरण लेकर अंग्रेज़ों के खिलाफ छापेमारी जारी रखी। तब अंग्रेज़ों ने पहाड़ों की घेराबंदी करके तिलका मांझी तक पहुंचने वाली तमाम सहायता रोक दी। मजबूरन तिलका मांझी को अन्न और पानी के अभाव के कारण पहाड़ों से निकल कर लड़ना पड़ा और एक दिन वो पकड़े गए। कहा जाता है कि तिलका मांझी को चार घोड़ों से घसीट कर भागलपुर ले जाया गया और बरगद के पेड़ से लटकाकर उन्हें फांसी दे दी गई थी।
जब तिलका मांझी को फांसी दी गई तब भारत के कथित प्रथम शहीद मंगल पांडे का जन्म भी नहीं हुआ था! भारत के आज़ादी के बाद जब भारतीय सिनेमा की शुरुवात हुई तो स्वतंत्रता संग्राम से सम्बंधित कई फिल्में बनी और लोगों ने बड़ी सराहना की। लेकिन बड़े दुःख की बात है कि भारत के प्रथम शहीद तिलका मांझी पर बॉलीवुड ने आज तक  कोई फिल्म नहीं बनाई जिससे भारत के लोग जान पाते कि आदिवासी  क्षेत्रों में भी वीर साहसी और योद्धा पाये जाते हैं।
भारत के आदिवासी वीर सपूतों एवं वीरांगनाओं की एक लम्बी लिस्ट है किस-किस की बात करूं, लेकिन बड़े अफ़सोस के साथ कहना चाहूंगा कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम के आदिवासी नायक एवं  वीरांगनाओं को शहीदों के रूप में याद ना करना अत्यन्त ही शर्मनाक बात है। जिस प्रकार से आदिवासी नायकों और वीरांगनाओं को मौत दी गई शायद ही कोई उस दर्द का एहसास कर सकता हो। लेकिन उस दर्द में भी आज़ादी की ख़ुशी छुपी हुई थी।
तिलका मांझी के इस बलिदान को इतिहासकारों ने भले ही नजरअंदाज़ कर दिया हो, लेकिन राजमहल के आदिवासी आज भी उनकी याद में लोकगीत गुनगुनाते है, उनके साहस की कथाएं सुनाते है। तिलका मांझी उनके दिलो में ज़िन्दा हैं। तिलका मांझी का नाम भले ही इतिहास में दर्ज़ नहीं, लेकिन बिहार के भागलपुर जिले में पिछली दो सदी से उनका नाम याद किया जाता रहा है। आज झारखण्ड और बिहार राज्यों में उनके नाम पर हाट, मुहल्लों और चौक का नामकरण किया गया है। बिहार के भागलपुर में तिलका मांझी के नाम पर 12 जुलाई 1960 में तिलकामांझी भागलपुर विश्वविद्यालय नामकरण किया गया था।
स्वतंत्रता दिवस के दिन इन आदिवासी वीर सपूतों और वीरांगनाओं को भी याद किया जाए, इनके अदम्य साहस और वीरता को श्रद्धांजलि दी जाए और उन्हें राष्ट्रिय स्तर पर सम्मान दिया जाए।

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